Thursday, September 16, 2010

वृक्ष संरक्षण और वृक्षारोपण की अनिवार्यता

जार्ज बर्नाड शॉ को फूलों से बहुत प्रेम था। एक दिन उनके एक मित्र उनके घर पधारे। घर में कोई फूलदान न देखकर उन्होंने आश्च र्य से पूछा आपको फूलों से बड़ा प्रेम है, लेकिन आपके कमरे में तो एक भी फूल नहीं हैा बर्नाड शॉ ने मुस्कुराते हुए जवाब दियाए ष्ष्प्रेम तो मुझे अपने बच्चों से भी हैए लेकिन क्या मैं उनकी गर्दन काटकर अपने कमरे में सजा लूँए मुझे फूलों से प्रेम है, इसलिये तो वे मेरे बाग में हँसते, खिलते, खेलते हैं।

कितनी सटीक बात कही थी उन्होंने। यही बात पेड़-पौधों के संदर्भ में कही जाए, तो हम कहेंगे कि क्या नहीं देते हमें वृ़क्ष? खुशियाँ ही खुशियाँ, हरियाली, खाद्य पदार्थ, औषधि, छाया, पर्यावरण और प्रदूषण सुरक्षा। उनसे हमें प्रेम क्यों नहीं होना चाहिये। लेकिन फिर भी मानव इन्हें सदियों से काटता चला आ रहा है। इन्हें मुरदा बनाकर अपने ऐशो आराम के साधन जुटाने के लिये, या फिर ईंधन की ज़रूरतें पूरी करने के लिये। किसी को चिंता नहीं है भविष्य की। कितना डर लगता है यह जानकर कि विश्‍व में प्रति मिनट 77 हेक्टेयर भूमि पर वन कट रहे हैं, जबकि विषेषज्ञों का माना है कि प्राकृतिक संतुलन और जीवन रूपी चक्र को चलाने के लिये पृष्वी का 33 प्रतिशत भाग हरियाली से मुक्त होना चाहिये।

चाँद से लौटे यात्रियों ने चाँद से दीखती हुई खूबसूरत पृथ्वी का जिस प्रकार वर्णन किया था उसमें अत्यंत महत्वपूर्ण बात थी पृथ्वी का हरा-भरा दीखना। हरियाली ने न सिर्फ हमारी धरा को खूबसूरत बनाया है, बल्कि यही सबसे बड़ा कारण है पृथ्वी पर मानव जीवन के अस्तित्व का। पेड़ हैं तो जल है और पेड़ हैं तो अनुकूल जलवायु है। हम सौभाग्यशाली हैं कि पृथ्वी पर हम मानव के रूप में विद्यमान हैं। लेकिन हमारा ये अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है धरा को हरयाली विहीन करते जाने से। आज की विस्फोटक स्थिति ये है कि अनिवार्य 33 प्रतिशत की जगह केवल 10 प्रतिशत क्षेत्र में हरियाली बची है। यदि इसी तेजी के साथ वन -कटाई का कार्य चलता रहा तो बढ़ती जनसंख्या के सामने 10 प्रतिश त होता कितना सा है?

आज जरूरत केवल इस बात की नहीं है कि हम लगे-लगाए पेड़ ‘न काटें’- हो सकता है कि उनमें से न जाने कितने हमारे पुरखों के हाथों से रोपित किये गए होंगे- जरूरत इस बात की है कि हम अपने और अपनी आगामी पीढ़ियों के लिये अधिकाधिक पेड़ ‘लगाते भी चलें’। कुछ लोग कह सकते हैं कि यहाँ तो पीने के पानी की ही इतनी किल्लत है और आप नए वृ़क्ष लगाने की बात कर रही हैं? इसका जवाब हम देंगे कि चूंकि हमने वृ़क्ष नहीं लगाए हैं, सिर्फ काटते रहे हैं, उसी का दुष्परिणाम है ये पानी की किल्लत।
प्राचीन ऋषियों ने वन-उपवन लगाने की परंपरा आश्रमों के साथ डाली थी। आज के वैज्ञानिकों के अनुसार भी जहाँ-जहाँ घनी बस्तियाँ बसाई जाती हैं, वहाँ बीच में ‘ग्रीन बेल्ट’ की गुंजाइष छोड़ना आवष्यक है। वृक्षों की कमी देखकर पुराने समय में भी कवि हृदय ऋषि धरती माता से कह उठते थे -
यथा पल्लव पुष्पाढ्या, यथा पुष्पफलर्द्धयः।
यथा फलार्द्ध स्वारोहा, हा मातः क्वागमन।।
अर्थात् पत्तों के समान ही जिनमें प्रचुर पुष्प होते थे और पुष्पांे के समान ही जिनमें प्रचुर फल लगते थे और इतने फलों से लदे होने पर भी जो सरलता से चढ़ने योग्य होते थे, बता वे वृक्ष अब कहाँ गए?
        
निदान बहुत सरल है। माँग बहुत छोटी सी है। यदि ‘एक व्यक्ति, एक बड़ा और स्थाई वृक्ष’ का सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति अपना ले, तब भी स्वर्णिम युग आने में देर न लगे। जीवनदाता वृक्षों को काटना हम जीवहत्या के समान समझें। प्रकृति के अंग ये वृक्ष प्रदूषण निवारण के साथ-साथ इस धरा का सौंदर्य भी बढ़ाते रहेंगे और मानव को विविध जीवन तत्व भी देते रहेंगे। आवश्‍यकता है बस जनचेतना जगाने की।
                                                                                                                                          संज्ञा टंडन

2 comments:

  1. मैं आपकी बातों से पूर्ण रूप से सहमत हूं, संज्ञा जी। मुझे तो यह लगता है कि इंसान अपने जीवन में एक ठूँठ नहीं बोता, लेकिन मरने पर चार टन लकड़ी खा जाता है। यह भी कोई जीवन है भला? इसका मतलब तो यही हुआ कि मोत के लिए हमारी ही जिंदगी नष्‍ट हो रही है। इस दुनिया को पेड़ ही बचा सकते हैं, पर इंसान यह सोच ही नहीं पाता, हरियाली को अपने ड्राइंग रूम की शोभा बनाना तो चाहता है, पर ऐसा कर नहीं पाता, इसलिए हरियालीयुक्‍त सिनरी ले आता है और बच्‍चों से कहता है इसे कहते हैं हरियाली।
    आपकी चिंता सही है, इंसान सचमुच यदि अपने बुजुर्गों का साथ पाना चाहता है तो परंपराओं को तोड़ते हुए अपने मृतक प्रियजन को घर के सामने ही गाड़ दे और वहॉं पर एक पौधा रोप दे, देखिए कितनी जल्‍दी बढ़ता है वह पौधा, कुछ समय बाद जो वहॉं बैठेगा, वह अपने बुजुर्गों की छॉंव पाएगा, उनका दुलार पाएगा। उनकी स्‍नेहभरी छॉंव में वह कुछ नया सोच पाएगा। यदि वह अपनी वसीयत में यह लिख दे कि मुझे जलाया न जाए, तो ही वह पूरे विश्‍व को बचाने में अपनी छोटी सी भूमिका निभा लेगा। क्‍या हर इंसान की सोच ऐसी हो सकती है ?
    डॉ महेश परिमल

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  2. नूतन वर्ष मंगलमय हो आप की लेखनी नित नवीन साहित्य व ज्ञान
    का सृजन करे आप को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये ..

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